भोपाल औसाफ़ शाहमीरी खुर्रम रमज़ान उल मुबारक का पाकीज़ा महीना गुज़र रहा हैं, छोटे-बड़े, औरत-मर्द सभी मुसलमान रोज़ा रख रहे हैं मैं भी रख रहा हूं मगर दोस्तों मैंने बचपन में जब पेहला रोज़ा रखा तब मेरी प्यारी मां ने मुझको जो नसीहत की थी वो आप भी ज़रा समझ लीजिये

रमज़ान उल मुबारक का पाकीज़ा महीना गुज़र रहा हैं, छोटे-बड़े, औरत-मर्द सभी मुसलमान रोज़ा रख रहे हैं मैं भी रख रहा हूं मगर दोस्तों मैंने बचपन में जब पेहला रोज़ा रखा तब मेरी प्यारी मां ने मुझको जो नसीहत की थी वो आप भी ज़रा समझ लीजिये... मेरे मुसलमान भाईयों आपको वक्त और ज़माने के साथ चलने की कोई ज़रूरत नहीं है, आप तो प्यारे नबी पाक स.अ.व. की पाकीज़ा सुन्नतों पे अमल कर नेक रास्ते पर चलो तो ज़माना खुद ब खुद तुम्हारे पीछे आ जाएगा इसी तरह मेरे वालिद साहब भी कहते थे कि कोई माने या न माने मगर यह बिलकुल सच है कि भूखे की भूख और प्यासे की प्यास का एहसास करने का नाम ही रोज़ा होता है. अगर आप रोज़ा रखकर भी यह एहसास नहीं कर पाये तो आप की नीयत दुरुस्त नहीं है रोज़ादार को दूसरों के दुख दर्द का एहसास होनां ही चाहिये मुसलमान को बेदर्द नहीं हमदर्द होना चाहिये तब ही तो वो अपने रब को राजी करने मे कामयाब हो सकता है। रोज़ा इतनी महत्वपूर्ण इबादत है कि अल्लाह पाक ने खुद इसका इनाम देने का एलान किया है। हां तो मैं जब 8 साल का था तब मेरे पिता हज़रत शहीद आसिफ़ शाह मीर साहब और मेरी मां हज़रत बीबी नियाज़ फ़ातिमा साहिबा ने मेरा पेहला रोज़ा रखवा कर मेरी रोज़ा खुशाई का जशन मनाया गया था शहर भोपाल की कई मोआज़िज़ हस्तियां मेरे घर पर मुझे मुबारकबाद देने आईं। मेरे ताऊ जी हज़रत क़ाजी सैययद वजदी उल हुसैनी साहिब जो भोपाल के शहर काजी थे उन्होंने मुझे दुआ पढ़वा कर मेरा रोजा अफतार करवाया और हजरत पीर सईद मियाँ साहिब मुजदददिदी के साथ-साथ मेरे ख़ानदान के भी अनेक पीरज़ादों और देश भर से हमारे घर में मेहमान आए मेरे सभी बुजुरगों  ने मुझे दुआएं देंकर नवाजा। हमारे मोहल्लेदार डाॅ. शंकर दयाल शर्मा साहब जो बाद में देश के राष्ट्रपति भी बने और हिन्दु महा सभा के रहनुमा भाई जी श्री उद्धव दास मेहता जी, तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री प्रकाशचंद सेठी, एवं श्री बाबूलाल गौर साहब के अलावा सांसद श्री सईद उल्ला खां रज़मी साहब, मौलाना तरज़ी मशरिक़ी साहब और ताजुल मसाजिद के प्रमुख मौलाना इमरान ख़ान साहब नदवी और कई मशहुर सूफ़ी, संतों, बुजुर्गों ने भी गले लगा कर मुझे मुबारकबाद दी थी।मुझे आज भी अपनी रोजा खुशाई का दिन खूब अच्छी तरह से याद है हालांकि तब से अब तक निरंतर रोजे रखते हुये आधी शताब्दी से ज़्यादा ज़िंदगी गुजर गई मगर वो पहले रोजे की खुशी की यादगार अब भी बाकी है। अब मेरे नवासा नवासियां और पोते पोतियां मुझ से मेरे पहले रोज़े के बारे में जब भी पूछते हैं तो मेरी आँखे छलक जाती हैं... मुझे वो गुजरता ज़मांना याद आ जाता है और बुजुर्गों की नसीहतें मेरे कानों में गूंजने लगती है।